
गोली की आवाज नहीं..
ना कोई धमाका है।
तुम्हारे शहर को देखा
तब सोचा..
मेरे शहर में कितना सन्नाटा है।
जाने कैसे जीते हैं..
तुम्हारे शहर के लोग,
एक के बाद एक
धमाका खुद को दोहराता है।
ये मेरी शिकायत नहीं,
ना कोई गिला मुझे..
अपने दायरे में खुश हूं मैं,
लेकिन..
तुम कैसे जीते होगे..
बस.. यही सवाल
मन को बहुत डराता है।
तुम्हारे शहर को देखा
तब सोचा..
मेरे शहर में कितना सन्नाटा है..
मेरे शहर मे कितना सन्नाटा है।
अनु गुप्ता
14 मार्च 2010
6 comments:
बहुत खूबसूरत नज़्म ...धमाको से हुए सुन्नं ऐसे कान के अजान तक सुनाई नहीं देती
बहुत खूबसूरती से आपने दिल की बात कह दी..आभार
Ashu
Bahut Sundar rachana....Shubhkaamnae.
Aap word verification bhi hata dijiyega tipaani karane walo ko aasani ho jaaegi.
http://kavyamanjusha.blogspot.com/
तुम्हारे शहर को देखातब सोचा..
मेरे शहर में कितना सन्नाटा है।
सन्नाटे भी कभी कभी बहुत डराते है
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति
gr8 one....
really...
achha likha hai...
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