Monday, May 26, 2008

दास्तान-ए-आरुषि

आरुषि १४ साल की एक लड़की... जिसकी परवरिश उससे ज्यादा आज़ादी में हुई... जितनी में होनी चाहिए थी। दिल्ली के एक बड़े पब्लिक स्कूल में पढ़ने वाली आरुषि के पास वो सब था जिसकी उसे जरूरत थी.... या शायद उससे कहीं ज्यादा ही था। जो उसने चाहा उसे सब मिलता रहा..... पर एक दिन अचानक आरुषि की लाश उसके अपने घर में मिलती है..... इस हत्या के आरोप में आरुषि के पिता डॉ राजेश तलवार जेल में हैं। आनन-फानन में की गई इस गिरफ्तारी पर नोएडा पुलिस को मीडिया सहित आम लोगों की तीखी प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ा और अब पुलिस डॉ राजेश का नार्को टेस्ट करवाने पर विचार कर रही है। लेकिन इस गुत्थमगुत्था में एक सवाल जो पीछे छूट गया वो ये कि आज हमारा समाज किस तरफ जा रहा है..... हम बच्चों को कैसी परवरिश दे रहे हैं? मतलब आज हमारे पास उन्हें देने के लिए आज़ादी है..... बेहिसाब पॉकेट मनी है पर वक्त नहीं है और इसी की भरपाई उन्हें पैसे देकर कर ली जाती है। मतलब बच्चे भी खुश और माता-पिता अपनी जिम्मेदारी से आज़ाद। आरुषि अपने पेरेन्ट्स की इकलौती संतान थी। बेहद लाड़-प्यार में पली हुई... उसकी हत्या में अगर उसके पिता का भी हाथ है तो अचानक ऐसा क्या हो गया जो उन्हें अपनी बेटी का कत्ल करने पर मजबूर होना पड़ा? यहां ऑनर किलिंग की बात की जा सकती है। डॉ तलवार जो कि सभ्य समाज में एक ऊंचा दर्जा रखते हैं.... को अपनी बेटी को मारना पड़ा क्योंकि उनकी बेटी के सम्बंध घर के नौकर से थे जो उम्र में उससे कहीं ज्यादा बड़ा था (नोएडा पुलिस के मुताबिक)। या इस खून का एक और कारण आरुषि का वो तथाकथित एमएमएस था जिसे एक चैनल ने खूब बेचा। लेकिन एक पिता अपनी जान से प्यारी बेटी को बजाए समझाने के उसका कत्ल कर देंगें। अगर इस पुलिसिया थ्योरी को मान भी लिया जाए तो फिर वही सवाल उठ खड़ा होता है कि आखिर हमारा समाज कहां जा रहा है? क्या एक पिता को अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा इतनी प्यारी थी कि उन्होंने अपनी बेटी को भी मार दिया? आज हम आगे तो बढ़ रहे हैं..... लेकिन जिंदगी में इतना तनाव है, इतनी उलझनें कि कभी-कभी हमारे सोचने-समझने की ताकत को जंग लग जाता है। हर दिन ये केस और ज्यादा पेचीदा होता जा रहा है। और शायद एक दिन आरुषि का कातिल सलाखों के पीछे होगा लेकिन क्या इतना काफी है क्योंकि और भी कई आरुषि हैं हमारे समाज में उनका क्या होगा? क्या उन्हें समझना और समझाना हमारा फर्ज नहीं है। वक्त से साथ बदलना और आधुनिक होना गलत नहीं है पर जरूरत है अपने मूल्यों को भी बचाए रखना....... आरुषि अगर गलत भी थी तो क्यों न उन पहलुओं पर गौर किया जाए जो इसके लिए जिम्मेदार हैं। आरुषि को अपनी दर्दनाक के बावजूद भी शांति नहीं मिली। इसके लिए मीडिया की भूमिका को कतई नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता। आरुषि की मौत को मसाला लगाकर जो जितना बेच सकता था उसने उतना बेचा। जहां एक न्यूज़ चैनल आरुषि की मौत की खबर को ये कहकर दिखाना बंद कर रहा था कि वो दो लोगों की मौत का मज़ाक बनाना नहीं चाहता.... वहीं दूसरी तरफ बाकी चैनल मसालों के साथ खबर को बेच रहे थे।

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