पूछा एक दिन मैंने.. खुद,
अपने ही 'साए' से
क्यों बढ़ गई हैं दूरियां...
क्यों रिश्ते हुए पराए से?
प्यार नाम का शब्द नहीं है...
रिश्तों की गहराई में,
दिख रहे हैं सारे रिश्ते...
हर पल कुछ घबराए से।
दूरियां बढ़ती जा रही हैं...
सागर की लम्बाई में,
दूर होता जा रहा जीवन...
अपनों की परछाई से।
व्योम जितनी ऊंचाई हैं और...
बिखर रहे हैं रिश्ते सभी,
ठिठुर रही हैं रिश्तों की गर्माहट,
कैसे इन सर्द हवाओं से।
कारण पूछा इस सबका तो...
बोला कुछ ठंडाई से,
कड़वाहट बढ़ती जा रही है...
रिश्ते हो गए स्वार्थी-से...
तोले जाते हैं अब तो ये...
पैसों की ही ताकत से।
फासलें सौ-सौ मीलों के हैं....
इसलिए रिश्ते हुए पराए से।
2 comments:
her aadmee ek mukhauta laga kar khada hai aur use pehchana mushkil hai.isee lie sare rishte nate mauka perastee ke lihaz se ban aur bigad rehe hain.kaun sochta hai ki "farishto me nahin milt ye wo zazba hai insanee,naseeba sath de jiska wahi deta hai kurbaanee." achha likha hai apne likhte rehie.
हिन्दी ब्लॉगजगत मे स्वागत है । लिखती रहें !
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