
फिर भी
मुझे यकीन नहीं
बाहं छुड़ाकर,
तुम लौट तो गए
ठहरे नहीं,
ना पुकारा मुझे
दर्द छोड़कर,
तुम लौट ही गए
फिर भी
मुझे यकीन नहीं
क्या तुम ही थे
वो
कभी मिले थे
कहीं
सब भूलकर,
तुम लौट तो गए
मुझे यकीन नहीं
बस
इतना ही सफर
या
ना मंजिल ना डगर,
बीच राह छोड़कर
तुम चले तो गए
फिर भी
मुझे यकीन नहीं
खामोश-सा
बेकरार हर लम्हा
बेसब्र सवाल
क्यों
क्यों
मुझे यकीन नहीं
बाहं छुड़ाकर,
तुम लौट तो गए
ठहरे नहीं,
ना पुकारा मुझे
दर्द छोड़कर,
तुम लौट ही गए
फिर भी
मुझे यकीन नहीं
क्या तुम ही थे
वो
कभी मिले थे
कहीं
सब भूलकर,
तुम लौट तो गए
मुझे यकीन नहीं
बस
इतना ही सफर
या
ना मंजिल ना डगर,
बीच राह छोड़कर
तुम चले तो गए
फिर भी
मुझे यकीन नहीं
खामोश-सा
बेकरार हर लम्हा
बेसब्र सवाल
क्यों
क्यों
टूटकर
मुझे तोड़कर
तुम चले तो गए
फिर भी
मुझे यकीन नहीं
अनु गुप्ता
24 सितंबर 2010
मुझे तोड़कर
तुम चले तो गए
फिर भी
मुझे यकीन नहीं
अनु गुप्ता
24 सितंबर 2010
6 comments:
आप की कृति के शीर्षक को सादर उधार लेते हुए मैं कहना चाहूँगा कि मुझे यकीं नहीं हो रहा कि इतनी सरल और सीधी शैली में इतने सहज तरीके से दर्द को कलम के ज़रिए उतारा जा सकता है
बेहद प्रभावी लिखा है, जो मन को छूता है
बहुत सुंदर और सरल शब्दों में व्यथा बयां की है आपने ।
अच्छी अभिव्यक्ति!
जज्बातों में डुबा एक एक लफ्ज बेहतरीन
बरसों पहले सुना था कलम के सिपाही को पत्रकार कहते हैं ..हाँ मैंने कलम को बिकते देखा है , ठिठकते और डरते देखा है ....कैमरे के आगे स्टूडियो में लोगों को आंसुओं का ड्रामा करते देखा है .....हाँ मैंने मीडिया को बड़े करीब से देखा है ...मुट्ठी भर ईमानदार पत्रकारों की बदौलत सच्चाई को बचते देखा है ..
बहुत गहरी है आप के लेखन में कृपया लिखती रहें ताकी बहुत अच्छा पढ़ने को मिलता रहे
बहुत बढ़िया
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