Thursday, April 10, 2008

राज का साज़.......

बाल ठाकरे से अलग होकर राज ठाकरे ने महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन जोर-शोर से किया। उनकी इस नई पार्टी के सिद्धांत और राज के तेवर बिल्कुल वही हैं, जो शिवसेना या बाला साहेब ठाकरे के हैं। आमची मुम्बई का राग अलापने के बावजूद भी न तो एमएनएस अपनी छत मजबूत कर पाई और न ही राज ठाकरे राजनीतिक गलियारों में कोई ख़ास जगह ही बना पाए। लेकिन अब अचानक ही पिछले कुछ दिनों से लगातार मीडिया की सुर्खियों में बने हुए हैं। आमची मुम्बई के नारे से यू टर्न लेकर राज ठाकरे की गाङी उत्तर भारतीयों तक आ पहुँची है। उत्तर भारतीयों और बिहार के लोगों के खिलाफ राज के बयान और एमएनएस की हिंसा- इसी बात को पुख्ता करते हैं कि राज को अब हाशिए पर रहना मंजूर नहीं। उन्हें चाहे जो करना पङे लेकिन अब वो पॉइंट ऑफ अट्रैक्शन बनकर ही रहेंगे। यकीनन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया उनकी इस चाहत को पूरा भी कर रहा है। उत्तर भारतीयों और बिहार के लोगों के खिलाफ ज़हर उगलकर भी जब वो कोई बङी सफलता हासिल नहीं कर पाए तो उन्होंने अपना अगला निशाना बनाया अमिताभ बच्चन को। राज ठाकरे के लिए इससे बङा दुख और क्या होगा कि जिस अमिताभ को कोसकर उन्होंने न जाने कितने लोगों की बद-दुआएँ अपने सिर ले ली हैं...... उन्होंने तो राज को घास तक नहीं डाली। भला अब क्या करेंगे राज सिवाय एक और नया शिकार ढूंढने के क्योंकि किसी ने ठीक ही कहा है..... खाली दिमाग शैतान का घर.......

Monday, April 7, 2008

खेल, खबरों का......

बचपन में भाई के साथ घर-घर और दुकान-दुकान जैसे खेल खेलती थी। कुछ और बङा होने पर खेलों का दायरा भी बढ़ गया और आज मैं एक नया खेल सीख रही हूँ- खबरों से खेलना। ये नया खेल शायद आज सबसे ज्यादा खेला जाता है, हो सकता है क्रिकेट से भी ज्यादा खेला जाता हो। आखिर २४ घंटे के न्यूज़ चैनल्स की बाढ आई हुई है.... और फिर टीआरपी की दौङ में भी बने रहना है। तो क्या दिखाया जाए चौबीस घंटे, कहां से आएंगी इतनी खबरें और अगर खबरें आ भी जाएं तो जरूरी तो नहीं कि लोग उन्हें पसंद भी करें। आखिर सवाल टीआरपी का जो ठहरा। किसानों की हालत क्या है इसे भला कौन जानना चाहेगा? लेकिन हाँ, करीना के लव अफेयर्स में सभी की दिलचस्पी है। छोटी से छोटी और बेहद मामूली बात को कैसे भुनाया जाए, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया से बेहतर कोई नहीं जानता। मैं भी इसी मीडिया का एक हिस्सा हूँ.......मेरी ही तरह यहां ज्यादातर लोग आते हैं अपने विचारों से, अपने काम से परिस्थितियों को बदलने का सपना लेकर.... लेकिन टीआरपी की दौङ सभी के क्रांतिकारी विचारों को बदल डालती है। आज बहुत कम लोग ऐसे हैं जो सच में खबरों से खेल नहीं रहे बल्कि पत्रकारिता कर रहे हैं। वो लगे हुए हैं एक कोशिश में कि.... किसी तरह इस दौङ से अलग पत्रकारिता का वज़ूद बनाए रखें चाहें उनका अपना कोई अस्तित्व न रहे।