Sunday, May 24, 2009

नौकरी या इम्तिहान ?


आजकल मैं अपने इम्तिहान की तैयारी करने की कोशिश कर रही हूं। दरअसल अब तक ऑफिस से छुट्टियां नहीं मिली हैं। इसलिए कोशिश ही कह सकती हूं। हालांकि मेरा मानना यही है कि.. कोशिश ही हमें कामयाब बनाती है। मैं कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से मास कम्युनिकेशन्स में पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही हूं।


खैर, अब मुद्दे की बात.. जिसके लिए ब्लॉग लिख रही हूं। एक और इम्तिहान है.. जिसे रोजाना देती हूं। और दिन के अंत यानि अपनी शिफ्ट के आखिर में यही सोचती हूं कि.. एक और इम्तिहान खत्म हो गया। मैं पास हुई या फेल ? ये इम्तिहान है किसी मीडिया हाउस या चैनल के दफ्तर में एक दिन गुजारने का। मेरी निजी सोच यही है कि.. इससे जुड़े ज्यादातर लोग ही रोजाना इस इम्तिहान में बैठते हैं। ये परीक्षा ही तो है कि.. बेतहाशा दबाव में भी बेहतर काम करने की कोशिश की जाए। चीख-चिल्लाहट और बेवजह शोर को अनसुना करते हुए बस काम किया जाए। या कभी बिना किसी ठोस बात के गुस्सा कर रहे बॉस की डांट सुनी जा। मन में कहीं न कहीं यही बात होती है कि.. शायद आज तो बात बिगड़ी ही समझो। इसलिए दफ्तर में हर एक दिन नए इम्तिहान जैसा है।


यूं तो विद्वानों ने जिंदगी को भी इम्तिहान की संज्ञा दी है। ये सही है या गलत.. ये तो आपके निजी अनुभव पर निर्भर करता है। लेकिन इस इम्तिहान के सामने तो जिंदगी भी आसान लगती है। वो बात अलग है कि.. इसने नौकरी को आसान बनाने की जुगत ने जिंदगी को ही मुश्किल कर दिया है।


यहां लोगों को नौकरी बचाने के लिए जुगाड़ करते देखा है। अपनी नौकरी सेफ जोन में रखने के लिए दूसरों की नौकरी को मुश्किल में डालते लोगों को भी देखा है। ब्रेकिंग न्यूज के वक्त गुस्से का ऊंचा पारा देखा है। न्यूज रूम की दौड़-भाग में मैं भी शामिल होती हूं। यही दौड़ जिंदगी का हिस्सा बन गई है। इसमें हारने का डर नहीं है लेकिन पिछड़ने का ही खतरा हमेशा बना रहता है। आप अव्वल भले ना हों.. लेकिन अव्वल दर्जे के समकक्ष होना भी सुखद लगता है। इसलिए ये इम्तिहान है। और अगर हर बीतते हुए दिन के साथ आपकी नौकरी बची हुई है.. तो यकीनन आप इसमें पास हैं.. क्योंकि ये इम्तिहान ऐसा है.. जिसमें रोजाना फेल होने का डर होता है।

इस इम्तिहान के लिए मेरे साथ-साथ आपको भी 'बेस्ट ऑफ लक'




Saturday, May 9, 2009

भारत को बचा ले विधाता

जन गण मन अधिनायक
जय है
भारत भाग्यविधाता
राष्ट्रगान की इन पंक्तियों को यहां लिखते हुए न तो मैं और न इन्हें पढ़ते हुए आप खड़े होंगे। टेलीविजन पर 26 जनवरी की परेड और 15 अगस्त का कार्यक्रम देखते हुए जब राष्ट्रगान बजता है, तो क्या आप खड़े होते हैं। शायद नहीं, क्योंकि हमें इतना ख्याल ही नहीं रहता। क्या ये राष्ट्रगान का अपमान नहीं है? क्या जवाब देंगे आप? राम गोपाल वर्मा पर उनकी फिल्म रण में राष्ट्रगान से छेड़छाड़ करने का आरोप लगाया गया। विवाद उठने लगा तो सेंसर ने फौरन गाने को फिल्म से हटाने का निर्देश जारी कर दिया। राष्ट्रगान के साथ छेड़छाड़ तो जरूर की गई है, लेकिन क्या वाकई ऐसा है? क्या उस पैरोडी का एक एक शब्द हकीकत तो बयान नहीं करता।रबिन्द्रनाथ टैगोर ने इसे संस्कृत मिश्रित बंगाली में लिखा था। 27 दिसम्बर 1911 को इंडियन नेशनल कॉंग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में इसे पहली बार गाया गया। जिसके बाद संविधान सभा ने 24 जनवरी 1950 को इसे राष्ट्रगान का दर्जा दिया। इसे गाने का कुल समय 52 सेकंड का होता है।

जरा गौर करिए
जन गण मन अधिनायक जय हे
भारत भाग्यविधाता
पंजाब सिंध गुजरात मराठा
द्राविड़ उत्कल वंग
विंध्य हिमाचल यमुना गंगा
उच्छल जलधितरंग
तव शुभनामे जागे,
तव शुभ आशिष मांगे
गाहे तव जयगाथा
जन गण मंगलदायक जय हे
भारत भाग्यविधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय जय जय जय हे!

अब देखिए राष्ट्रगान की पैरोडी

जन गण मन रण है, जख्मी हुआ है
भारत का भाग्यविधाता
पंजाब सिंध गुजरात मराठा
एक दूसरे से लड़के मर रहे हैं
इस देश ने हमको एक किया
और हम देश के टुकड़े कर रहे हैं
द्रविड़ उत्कल वंग,
खून बहाकर एक रंग का, कर दिया हमने तिरंगा
सरहदों पर जंग और गलियों में फसाद रंगा
विंध्य हिमाचल यमुना गंगा में तेज़ाब उबल रहा है
मर गया सबका सवेरा, जाने कब जिंदा हो आगे
फिर भी तव शुभ नाम जागे,
तव शुभ आशिष मांगे
आग में जलकर चीख रहा है,
फिर भी कोई नहीं बचाता
गाहे तव जयगाथा
देश का ऐसा हाल है, लेकिन आपस में लड़ रहे नेता
जन गण मंगलदायक, भारत को बचा ले विधाता
जय है या मरण है,
जन गण मन रण है

राष्ट्रगान और इस पैरोडी में अंतर तो है और वो अंतर होना लाजमी भी है। रबिन्द्रनाथ टैगोर ने जब राष्ट्रगान लिखा होगा.. तब उन्होंने नहीं सोचा होगा कि.. एक दिन देश की ये हालत होगी। भारत भ्रष्टाचार और आतंकवाद से जूझ रहा है। बावजूद इसके आज भी हम अपने आपसी झगड़ों को ही नहीं भुला पाए हैं। कभी गुजरात दंगों के नाम पर तो कभी मुंबई हमलों के नाम पर राजनीति की रोटियां सेंकी जा रही हैं। हमारी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। इसके जिम्मेदार हम खुद भी हैं। जब हम अपने अंदर से ही भ्रष्टाचार नहीं मिटा सकें तो देश को सुधारने की कैसे सोच सकते हैं। अमेरिकी अखबार में रिपोर्ट छपती है कि.. भारत गले तक भ्रष्टाचार में डूबा है। इस रिपोर्ट को टेलीविजन पर देख-सुनकर हम आदतन नेताओं और अफसरों को कोसने लगते हैं। लेकिन अपनी बात भूल जाते हैं। अपनी कमजोरियां तब हमें याद नहीं आती। दुनियाभर में भारत को विविधता में एकता वाले देश के रूप मे जाना जाता है। हमारी सदियों पुरानी संस्कृति-सभ्यता हमारी पहचान है। जब वो पहचान भ्रष्टाचार की गंदगी से धुंधला रही है.. तो हमारा ध्यान वहां नहीं जाता। क्या देश का अपमान नहीं है? क्या ये हमारी भावनाओं का अपमान नहीं है? लेकिन हम उसे सुधारने की कोशिश नहीं करते.. क्योंकि उसके लिए पहले हमें खुद को सुधारना होगा। फिल्म रण में राष्ट्रगान में कुछ बदलाव करके.. देश के हालात बयां करने की कोशिश की गई तो... वो हमें अपना, अपनी भावनाओं और राष्ट्रगान का अपमान लग रहा है। इसलिए हंगामा खड़ा कर दिया। अगर गीतकार अपने शब्दों को महज आम गीत की तरह पिरोकर गाना बना देता.. तो क्या हमारा ध्यान उस तरफ जाता। गीत और गीतकार को तारीफ तो जरूर मिल जाती। लेकिन वो ऐसी चोट शायद नहीं कर पाता, जैसी अब कर रहा है। गीतकार के शब्द तब उतने सार्थक नहीं होते.. जितने अब हैं। भले ही इसे छेड़छाड़ कहा जाए.. लेकिन है तो हकीकत ही.. जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। आज देश के हालात देखकर भले ही हम न सुधरे.. लेकिन दिल से आवाज यही उठती है कि.. 'भारत को बचा ले विधाता'