Wednesday, November 25, 2009

आप भी सोचो, मैं भी सोचूं...


एक साल बीता.. जैसे बीता कोई पड़ाव.. लेकिन अब तक नहीं बदले हालात.. आज भी खिलवाड़.. कभी धमाका.. कभी हत्या.. नहीं लिया कोई सबक.. 26/11 का एक साल.. शहीद हुए कई जाबांज.. बचा लिया देश.. दे दी आहुति प्राणों की.. क्या हमने कुछ सीखा.. क्या हम बदले.. नहीं.. नहीं और सिर्फ नहीं इसका जवाब.. क्या गया मेरा.. क्या गया तेरा.. मैनें नहीं खोया किसी को.. मैं भूल गई वो दिन.. खौफ की वो रातें तीन.. आज कुछ नम भी हो जाऊं.. लेकिन कल फिर भूल जाऊं.. तो क्या यही है श्रद्धांजलि.. यही है शहीदों की शहीदी.. इसलिए दी उन्होंने जान.. इसलिए हुए वो कुर्बान.. क्या यही होना था अंजाम.. आतंकियों ने डराया.. गोलियों से धमकाया.. लेकिन डटे रहे वो वीर.. उनका भी कोई घर था.. एक परिवार..जो बैठा था इंतजार में.. सांसों को अपनी थामकर.. लेकिन नहीं लौटा.. कोई बेटा, कोई सुहाग और कोई पिता.. बहन आज भी रोएगी.. मां का दिल भर आएगा.. पिता का मन होगा भारी.. लेकिन केवल शहीदी पर नहीं.. उनके सपूतों की धुंधली याद पर भी.. देश के हालात पर भी.. मार-धाड़ मची है यहां.. भ्रष्टाचार का बोलबाला.. अपनी-अपनी बनाने में लगे सभी.. फिर क्यों शहीद हुआ मेरा बेटा.. अगर होना था यही.. ऐसा तो नहीं सोचा था.. बयानबाजी जोरों पर.. राजनीति का बन गया मुद्दा.. लेकिन नतीजा ढाक के तीन पात.. क्यों नहीं बदलते हम.. मोमबत्ती जलाना ही नहीं श्रद्धांजलि.. वो महज भावनाएं.. बदलना है तो दिल से बदलें.. मजबूरी नहीं कर्तव्य.. देश ने दिया सब कुछ.. आप भी कुछ देना सीखें.. यही होगी श्रद्धांजलि.. ताकि.. फिर ना लौटे 26/11.. फिर ना हो कोई आंसू.. ऐसी जलाएं मोमबत्ती.. जैसें हों भावनाएं आपकी.. हैं तैयार आप..
आप भी सोचो.. मैं भी सोचूं..
26/11 के शहीदों को श्रद्धांजलि..

Wednesday, September 16, 2009

बस.. कह देना


जब ना रहे साथ,
और
खत्म हो हर बात
कह देना चांद से..
उसकी
चांदनी हमने देखी नहीं
कह देना बाग से..
उसमें
फूल हमारा खिला नहीं..
जब घिर आए रात,
और
बिगड़े हों हालात
कह देना रास्तों से..
उनसे
हम गुजरे नहीं
कह देना साज से..
उसमें
हमारी आवाज नहीं
जब मर जाए जज़्बात
और
जिंदगी लगे आघात
कह देना चाहों से..
उन्हें
हमारी ख्वाहिश नहीं
और कह देना आहों से..
उनमें
हमारा दर्द नहीं
जब भूलें हर मुलाकात..
कह देना ये बात
बस.. कह देना

अनु गुप्ता
16 सितंबर 2009

Friday, September 11, 2009

खिलौना जान कर तुम तो... (अंतिम भाग)


तमाशे के दो पाटों के बीच पिसती जिंदगी.. चेहरे पर शिकन.. हाशिए पर सिमटी खुशियां.. कुछ यही कहानी हो गई तमाम कलाकारों की। अब यहां हमेशा अफवाहों का बाजार गर्म रहता। साहबजी और मुनीमजी की खींचातनी से सभी वाकिफ थे.. लेकिन फिर भी कभी ऐसा लगता कि.. सब कुछ ठीक ही चल रहा है। तमाशे की टीआरपी चढ़ती-उतरती.. कभी इस कलाकार की तारीफ होती.. तो कभी उस कलाकार को सबके सामने खून का घूंट पीना पड़ता। तमाशे में चल रही खींचातनी का गवाह एक चाय की दुकान है.. वहीं इस सबकी चर्चा होती.. कौन आने वाला है.. कौन जाने वाला है.. लेकिन अचानक कुछ ऐसा हुआ.. जिसकी उम्मीद किसी को नहीं थी.. कभी सपने में नहीं सोचा था.. परदे के पीछे एक और तमाशा हुआ.. खूब खबर उड़ी.. लेकिन इस तमाशे की गाज जिस शख्स पर गिरी.. वो बड़ा चौंकाने वाला था.. तमाशे के लपेटे में मुनीमजी आ गए.. मुनीमजी ही नहीं.. उनके साथ दो बड़े कलाकार भी.. कई बार तमाशे की कहानी बनाने-बिगाड़ने वाले लोग इस बार खुद कहानी बन गए.. लेकिन ये क्या.. तीनों कलाकारों को तमाशे से बाहर कर दिया गया.. जंगल में आग से भी तेज फैली ये खबर.. पर इस बार किसी के चेहरे पर शिकन नहीं.. कोई नहीं घबराया.. कहीं दबी हुई आवाज में खुशी नजर आती.. तो कहीं खुल्लमखुल्ला इसका जिक्र था..
इतना वक्त गुजर गया.. अब तक तमाशे के कलाकार इसके आदी हो चुके हैं.. उन्हें पता है.. यही उनकी कर्मभूमि है.. जिसने उन्हें पहचान दी.. अच्छी या बुरी.. और यही इस तमाशे की असल कहानी है.. यही इसका सबक.. कि.. ये कभी खत्म नहीं होने वाला.. टीआरपी बढ़े या फिर गिर जाए.. आना-जाना लगा रहेगा.. इसलिए तमाशे की शुरुआत कभी हुई हो.. कहीं भी हुई हो.. इसका कोई अंत नहीं.. ये अनंत है.. इसलिए मुस्कुराना भी जरूरी है.. भले उनकी डोर कभी किसी और के हाथ में हो...

इस सीरीज के पहले दो भाग पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें।


अनु गुप्ता
11 सितंबर 2009

झांसी की रानी की तस्वीर







पिछले दिनों अपने ब्लॉग पर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की तस्वीर के बारे में बताया था। खबर के साथ झांसी की रानी तस्वीर भी थी। लेकिन वो तस्वीर सही नहीं थी। ई-पेपर भास्कर डॉट कॉम पर खबर के साथ जो तस्वीर प्रकाशित की गई.. दरअसल वो गलत थी। लेकिन ये खबर सही है कि.. इतिहास के पन्नों में झांसी की रानी की एकमात्र तस्वीर मौजूद है।
भोपाल के फोटोग्राफर वामन ठाकरे ने आज भी उस तस्वीर
को सहेजा हुआ है। एक निजी समाचार चैनल पर इस खबर
को दिखाया गया.. जिसमें लक्ष्मीबाई की भी दिखाई गई।
अपनी भूल को सुधारते हुए.. मैं अपने ब्लॉग पर झांसी की
रानी की वास्तविक तस्वीर दे रही हूं..
पिछली पोस्ट पढ़ने के लिए इस लिंक पर क्लिक करें।
अनु गुप्ता
11 सितंबर 2009



Wednesday, September 2, 2009

मैं तरसती हूं..


बारिश की..
एक अलसाई सुबह में,
मैं तरसती हूं..
जागने में आनाकानी के लिए,
मां की एक झड़प के लिए,
भीगे पत्तों, गीली ज़मीन
पर..
अपना नाम उकेरने के लिए।
माटी की सौंधी महक,
तेल की महक के लिए,
एक गरम प्याला
अदरक-इलायची वाला..
और
मद्धम-सी धुनों के लिए।
मैं तरसती हूं अब
उस एक दिन के लिए..

अनु गुप्ता
2 सितंबर 2009

एक थी रानी !

झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की कोई तस्वीर इतिहास में मौजूद नहीं है। स्केच या पेंटिंग के जरिए ही उनका चेहरा बनाने की कोशिश की गई है। हिंदी अखबार भास्कर की वेबसाइट पर हाल ही में एक तस्वीर प्रकाशित की गई.. जिसमें बताया गया कि.. वो तस्वीर झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की है.. तस्वीर के साथ उसका विवरण भी दिया गया है। मेरा निजी विचार यही है कि.. तस्वीर की सत्यता पर अब भी संशय है.. लेकिन उस तस्वीर को विवरण समेत मैं यहां पोस्ट कर रही हूं..

प्रस्तुत है विवरण-



अब तक आपने झांसी की रानी की तस्वीर पुस्तकों में स्केच या कैनवास पर ब्रश से उकेरे प्रयासों के सहारे ही देखा होगा, लेकिन भारत में रानी की लक्ष्मीबाई की मूल तस्वीर जिसको आप शायद ही कभी देखें हो।
जी हां ये है झांसी की रानी की 1850 में खींची गई मूल तस्वीर, जिसे सन 1850 में अंग्रेज फोटोग्राफर हॉफमैन ने लिया था। पिछले दिनों विश्व फोटोग्राफी दिवस यानि 19 अगस्त को पद्मश्री वामन ठाकरे द्वारा खींचे गए छायाचित्रों, कैनवास पे उकेरे चित्रों, लेखन कार्य और अन्य कलाकृतियों की प्रदर्शनी का आयोजन भोपाल में किया गया था। इस प्रदर्शनी में उनके विशेष आग्रह पे अहमदाबाद के एक एंटिक संग्रहकर्ता ने यह छायाचित्र भेजा था।
इस फोटो को श्री वामन ने प्रदर्शनी में दिखाकर लोगों को आश्चर्यचकित कर दिया। क्योंकि लक्ष्मीबाई के मूल फोटो को आज तक शायद ही किसी ने देखा होगा। अभी तक ऐसा माना जाता रहा है कि इस दुनिया में रानी लक्ष्मीबाई की तस्वीर उपलब्ध नहीं है। लेकिन इस तस्वीर के एकाएक सामने आ जाने से यह साफ हो गया कि रानी की तस्वीर अभी भी उपलब्ध है।
साभार- भास्कर डॉट कॉम
वेबसाइट पर लेख के लिए इस लिंक पर क्लिक करें

अनु गुप्ता
2 सितंबर 2009

Thursday, August 13, 2009

खिलौना जान कर तुम तो... (दूसरा भाग)


(खिलौना जान कर तुम तो.. इस सीरीज का पहला भाग पढ़ने के लिए लिंक पर जाएं)

तमाशे से कई कलाकारों की छुट्टी हो गई। कई दिन ये खबर हवा में तैरती रही और इसी के साथ ये अफवाह भी कि.. जल्द ही कई और कलाकारों की छुट्टी हो सकती है। बेचारे.. तमाम कलाकारों में डर बैठ गया। सभी संभलकर काम करने लगे.. कुछ ऐसे भी थे.. जिन पर इसका कोई असर नहीं हुआ.. और वो पहले की तरह ही बेहतरीन तमाशा दिखाते रहे। दूसरी तरफ कुछ ऐसे भी थे.. जो न पहलेकाम करते थे.. और न ही अब कर रहे थे। उन्हें यही लगता कि.. मुनीमजी और साहबजी के होते भला किसका डर। किस माई के बाप की हिम्मत.. जो उन्हें कुछ कहता। खैर, जैसे-तैसे दिन कटने लगे। पुरानी बातों को भुलाकर एक बार फिर तमाशा जमने लगा.. और कलाकार वाकई पुरानी बातें भूल गए। हालाकिं परदे के पीछे काफी कुछ घटता रहा.. अफवाहें उड़ती रहीं। इस दौरान कई कलाकारों ने तमाशे से नाम वापस लिया और उनकी जगह नए कलाकार इस तमाशे से जुड़े। खेल चलता रहा.. टीआरपी कभी गिरती.. तो कभी संभलती।तमाशा चलता रहा। कई महीने बीत गए। फिर देखते ही देखते तमाशा शुरु हुए एक साल हो गया। इस मौके पर जोर-शोर से एक गेट-टूगेदरका आयोजन भी किया गया। खूब चहल-पहल रही। वक्त बीत रहा था.. तमाशा चल रहा था। तमाशे की कमान कभी साहबजी तो कभी मुनीमजके हाथों में घूमती रहती। अक्सर कलाकारों की छंटनी की अफवाहें उड़ती रहती। इसी बीच एक और वाक्या हुआ। और वो ये कि.. कई कलाकारों की पगार बढ़ा दी गई। हालांकि समकक्ष वाले कलाकारों में कुछ की पगार बढ़ी.. तो कुछ की नहीं। एक बार फिर परदे के पीछेचर्चा शुरु हो गई। मुनीमजी और साहबजी पर भेदभाव का आरोप लगा। जिनकी पगार बढ़ी थी.. वो कलाकार अचानक सबकी नजरों में आ गए।उन्हें किसी की वाहवाही मिली.. तो किसी के ताने। अचानक काफी कुछ बदल गया उनके लिए। लेकिन कुछ दिन में फिर हालातसामान्य होने लगे। तमाशा इसके असर से अछूता था। इसलिए फिर बात आई-गई हो गई। लेकिन ये क्या एक बार फिर अचानक कुछउठा-पटक शुरु हो गई। तमाशे में हालात बदले हुए नजर आने लगे। बातें बननी शुरु हो गईं और अफवाहों का बाजार फिर गर्म हुआ।फिर कुछ होने वाला है.. किसी पर गाज गिरने वाली है.. क्या होगा.. हाय राम, ये क्या हो रहा है। ऐसा कैसे हो सकता है.. मुनीमजी और साहबजी के खबरी भी घबराए हुए थे.. क्योंकि अब कुछ भी हो सकता है। कहीं झूठ तो नहीं.. कहीं सच तो नहीं। जो होगा.. देखा जाएगालेकिन फिर भी मन में डर, घबराहट। और सबका डर रंग लाया। कोई अफवाह नहीं, कोई झूठ नहीं, सब सच। देखते-ही-देखते फिर कई कलाकारों की छंटनी हो गई। लेकिन इस बार इसका असर ज्यादा हुआ। तमाशे में मातम छा गया.. और तमाशे की टीआरपी अचानक गिर गई। बचे हुएकलाकारों में नाराजगी और गुस्सा था। लेकिन किसे कहें.. कैसे कहें। तमाशे के दो पाटों के बीच कई जिंदगियां पिस रही थीं। फिर भीसब खामोश.. खुद को बचाने की जुगत में।

..जारी है
अनु गुप्ता
14 अगस्त 2009

Tuesday, July 21, 2009

तुझ में नहीं मैं


तुझ में,
दूर कहीं
भीतर-बाहर की
गहराइयों में भी..
तलाशा खुद को
अपना वजूद
तुझ में ही कहीं
मन में,
दिल में,
और धड़कन में भी
ढूंढी अपनी आवाज
तेरी नजरों में,
ख्वाबों में,
कभी बातों में भी
सोचा मेरे जिक्र को
हंसी में,
नमी में,
तेरी खामोशी में भी
नहीं जाना अपने को
फिर भी
तलाशती रही
देर तक.. दूर तक
लौट आईं बेबस निगाहें
क्योंकि
तुझ में
मैं नहीं.. कहीं नहीं

अनु गुप्ता
21 जुलाई 2009

खिलौना जान कर तुम तो... (पहला भाग)


सुनो.. सुनो.. सुनो.. कस्बे में शुरु होगा एक नया तमाशा.. जिसमें आप ले सकते हो हिस्सा.. सुनो.. सुनो.. सुनो.. तो बन जाओ कलाकार और दिखाओ अपना हुनर..

ऐसे शुरुआत हुई कस्बे में नए तमाशे की.. इस तमाशे के लिए नया मंच तैयार हुआ और ढोल-नगाड़ों के साथ इसकी खबर पूरे कस्बे में फैल गई। जिसके बाद तमाशे में शामिल होने के लिए कई कलाकार आवेदन करने पहुंचे। मंच के साजों-सामान पर हजारों रुपये खर्च किए गए। तमाशे की तरह इसके कर्ता-धर्ता भी नए थे। सो उन्हें जरा भी अनुभव नहीं था। लिहाजा कर्ता-धर्ता ने तमाशे के कलाकारों को चुनने के लिए मुनीम जी और साहब जी की नियुक्ति की और निश्चिंत हो गए। तमाशे की बागडोर इन दो महानुभावों को मिलकर संभालनी है.. लेकिन दोनों में है अभिमान.. और दोनों ही कर्ता-धर्ता की नजरों में चढ़ना चाहते थे। इसलिए कलाकारों को चुनने में अपने आदमियों का खास ख्याल रखा। भई.. अब जब भाई-भतीजावाद चलेगा.. तो योग्य कलाकारों के साथ कुछ अयोग्य कलाकार भी आएंगे ही। लेकिन असली बात तो उन्हीं में है.. क्योंकि यही अयोग्य कलाकार ही तो तमाशे की असली बागडोर संभालेंगे। अब जनाब.. तमाशे के दौरान परदे के आगे और पीछे की कहानी मुनीम जी और साहब जी दोनों जानना चाहते हैं। सो उन्होंने ऐसे कलाकारों को भी चुना.. जो उनके विश्वासपात्र बनकर रहें।

खैर, जोर-शोर से तमाशा शुरु हुआ। कस्बे में चर्चा तो पहले से थी और कुछ उम्दा कलाकारों के साथ साथ मुनीम जी और साहब जी की मेहनत भी रंग लाई। देखते-ही-देखते तमाशा मशहूर होने लगा। कलाकारों में मित्रता हो गई.. हंसी-खुशी दिन बीतने लगे और तमाशे भी खूब जमने लगा।

लेकिन ये क्या.. अचानक परदे के पीछे का माहौल बदला सा नजर आने लगा। खुसर-पुसर शुरु हो गई.. कुछ बड़ा होने वाला है.. सभी कलाकार हैरान-परेशान.. अफवाहों का गरम बाजार.. क्या हुआ, क्या वाकई कुछ हुआ। अरे ये क्या.. ऐसा कैसे.. सही तो सुना है ना.. कहीं सुनने में कोई गलती नहीं हुई हो.. नहीं-नहीं बात तो सोलह आने सच है। ऐसा ही हुआ है.. मुनीम जी और साहब जी की आपस में नहीं बनती.. इसका असर तमाशे पर पड़ने लगा.. तमाशे की टीआरपी गिरने लगी.. तो कर्ता-धर्ता भी गंभीर हो गए.. अब मुनीम जी उनका दायां हाथ हैं और साहब जी बायां हाथ.. करें तो क्या करें.. अब ठीकरा तो कहीं न कहीं फोड़ना ही है.. तो चलो कुछ कलाकारों की छुट्टी कर दी जाए। वैसे भी कौन से तीर मार रहे हैं.. लो जी.. देखते ही देखते कलाकारों की छुट्टी कर दी गई।

...जारी है

Thursday, July 2, 2009

क्या वाकई रास्ता भटक गए हैं ?


'उन्हें रास्ता भटकने से रोकना चाहिए.. लेकिन अब कानून भी उनका साथ दे रहा है।'

ये वो पहली प्रतिक्रिया थी.. जो आज दिल्ली हाई कोर्ट का ऐतिहासिक फैसला आने के बाद सबसे पहले मुझे सुनाई दी। आज अपने फैसले में दिल्ली हाई कोर्ट ने साफ कर दिया कि.. समलैंगिकता कोई अपराध नहीं है। आपसी रजामंदी से महिला से महिला और पुरुष से पुरुष दोनों ही आपस में संबंध कायम कर सकते हैं। कोर्ट के इस फैसले के तुरंत बाद उन हजारों लोगों में खुशी की लहर दौड़ गई.. जो अब तक अपराधी होने के डर से अपनी पहचान छिपा कर जी रहे हैं।

भारतीय दंड संहिता की धारा 377 में समलैंगिकता को अपराध बताया गया है। समलैंगिक लंबे अरसे से इस धारा को खत्म करने की मांग कर रहे थे। आखिर अब कानून ने भी इसे मंजूरी दे दी है.. यानि अब समलैंगिकों को अपनी पहचान छिपाने की जरूरत नहीं।

समलैंगिकता हमेशा से ही एक गरम मुद्दा रहा है। कुछ वक्त पहले तक ये ऐसा विषय भी था.. जिस पर बात करना गुनाह माना गया। धारा 377 तकरीबन 149 साल पुरानी है। लॉर्ड मैक्यूले ने साल 1860 में इस धारा को भारतीय दंड संहिता में जोड़ा था। यानि इसकी शुरुआत ब्रिटिश राज में हुई। लॉर्ड मैक्यूले ने समलैंगिकता को अप्राकृतिक बताते हुए.. इसे अपराध की श्रेणी में रखा। देश को आजादी मिली लेकिन समलैंगिक तब भी धारा 377 के गुलाम बने रहे। दबी जुबान में धारा का विरोध होता रहा.. लेकिन सरेआम इस पर बात करना भी अच्छा नहीं माना गया।

डेनमार्क सबसे पहला देश था जिसने साल 1989 में समलैंगिकों को भी आम लोगों जैसे अधिकार दिए। इसके बाद नॉर्वे, स्वीडन और आईलैंड ने भी इसे मान्यता दी।

भारत में भी धारा 377 पर पुनर्विचार करने की मांग उठती रही। नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन, मानवाधिकार आयोग, योजना आयोग यहां तक कि लॉ कमिशन ऑफ इंडिया ने भी समलैंगिकों के अधिकारों की बात कही। वहीं समाज का एक तबका इसे भारतीय संस्कृति के खिलाफ बताता रहा। हाल ही में दिल्ली, चेन्नई, बेंगलुरु में गे प्राइड परेड आयोजित की गई। जिसके महज दो दिन बाद ही दिल्ली हाई कोर्ट ने समलैंगिकता को अपराध की श्रेणी से बाहर कर दिया।

कहीं खुशी की लहर है.. तो विरोध के स्वर भी उठ रहे हैं। लेकिन समलैंगिकों को ये कहना कि.. वो रास्ता भटक गए हैं और ये सामाजिक नजरिए से गलत है.. अब जायज नहीं है। वक्त बदल रहा है.. इसी परिवर्तन के साथ ही हमें समलैंगिकों को भी अपने समाज में जगह देनी ही होगी। क्योंकि समलैंगिक होना रास्ता भटकना नहीं.. ये प्राकृतिक है। अब कानून भी इसे मान रहा है..कि आप सजा के डर से समलैंगिकों के अधिकारों को नहीं छीन सकते। संस्कृति और समाज का डर दिखाकर उन्हें अपने मुताबिक जीने पर मजबूर नहीं कर सकते।

समलैंगिकता अपराध नहीं है.. ना ही समलैंगिक एलियन्स हैं.. वो इसी समाज का हिस्सा हैं.. और समाज की मुख्यधारा से जुड़कर जीने का उन्हें पूरा अधिकार है।
अनु गुप्ता

Thursday, June 4, 2009

सफर किया या नहीं

दिल्ली की बसों में सफर तो आपने कई बार किया होगा। हम डीटीसी और ब्ल्यू लाइन दोनों ही तरह के इन महान वाहनों की बात कर रहे हैं। आखिर हैं तो दोनों एक ही ना। एक बड़ी बहन और दूसरी छोटी बहन। क्यों ठीक है ना ?
खैर हम पूछ रहे थे कि आपने बस में सफर किया है या नहीं। अगर सफर नहीं किया तो हम दुआ करते हैं कि.. भगवान जल्दी ही आपको भी ये सौभाग्य दे। अरे ! चौंकिए मत, बस में सफर यानि यात्रा करना वाकई सौभाग्य है। इस पर जरा अपनी सूक्ष्म दृष्टि से विचार करिएगा। अब भला ये तो कोई बात नहीं हुई कि.. बस में यात्रा करते हुए भी आप बस इसकी कमियों पर ही ध्यान देते हैं। जनाब, जरा बस की खूबियों पर भी तो गौर फरमाइए। यदि आप ऐसा नहीं करते, तो आप बस में सफर करने वाले सबसे बड़े अज्ञानी हैं। भई, अब अपने नकारात्मक दृष्टिकोण को छोड़िए और जरा दिल्ली की बसों में यात्रा करने के इन फायदों पर नजर डालिए-
- आप अपनी दिनचर्या में इतना बिजी रहते हैं कि आपको एक्सरसाइज करने का वक्त भी नहीं मिलता। उस पर जंक फूड आपकी सेहत को दुरुस्त करने में कसर नहीं छोड़ता। तो बस का सबसे पहला फायदा यही है कि.. इसमें चढ़ने के लिए आपको थोड़ा-बहुत तो भागना ही पड़ेगा। इससे आपकी एक्सरसाइज भी हो जाएगी और बस में सबसे पहले चढ़ने की प्रैक्टिस भी।

- अब बात आपकी जेब यानि बचत की। बस में पचास की जगह सत्तर से अस्सी लोगों के होने का सबसे बड़ा फायदा यही है कि.. कंडक्टर की नजर से बचकर आप बिना टिकट के भी यात्रा कर सकते हैं। लेकिन इस विधा में आपको पल-पल की खबर रखनी होगी, वरना पकड़े जाने पर लेने के देने पड़ सकते हैं।

- लेकिन अगर आप टिकट खरीदना ही चाहते हैं तो.. इसमें आपके पड़ोसी बेमन से ही सही आपकी मदद कर सकते हैं। टिकट लेने की इस प्रक्रिया की लंबाई और वक्त आपके खड़े होने की जगह पर निर्भर करता है।

- बस का एक और लाभ है-भार मुक्ति। यानि अगर आप खड़े हैं तो अपना सामान अपने सीट वाले पड़ोसी को आदर सहित पकड़ा सकते हैं और अगर वो मना करें तो आपके दूसरे पड़ोसी कब काम आएंगे।

- बसों का एक फायदा है कि यहां मुफ्त में आपको झूलों (झटके और धक्के) का आनंद भी मिलता है। अरे दोस्त, इसलिए तो बस में जानवरों की तरह सवारी लादी जाती है। इसलिए जब भी बस बस रुकेगी या चलेगी तो आप कई तरह के झूलों का लुत्फ उठा पाएंगे।

- बस हमें भाईचारा भी सिखाती है। इसी भावना के वशीभूत होकर आप सीट पर बैठने के लिए थोड़ा-सा 'एडजस्ट' कर सकते हैं। कभी किसी महिला के लिए सीट छोड़ने पर भी आपको दुखी नहीं होना चाहिए। अंतर बस इतना है कि.. एडजस्ट कभी आपको करना पड़ेगा तो कभी लोग आपको एडजस्ट करेंगे।

- बस में झपकी लेने का मजा ही कुछ और है। संसार की सभी चिंताओं को भूलकर आप अपने पड़ोसी के कंधे पर सिर रखकर सो भी सकते हैं। अगर पड़ोसी सिर हटाए, तो क्या हुआ ? फिर सिर टिका दीजिए और अगर बात तू-तू, मैं-मैं पर आ जाए तो, माफी मांग लीजिए। जनाब, अच्छी नींद के बदले माफी मांगने से आप छोटे नहीं हो जाएंगे।

- और तो और बस मनोरंजन का भी साधन है। अगर दो लोग सीट या कम जगह को लेकर झगड़ा करें तो इससे आपका मनोरंजन भी होगा क्योंकि आनंद की इस चरम सीमा पर आप उन्हें रोकने तो जाएंगे नहीं। यही नहीं आपके पड़ोसी की निजी लेकिन मसालेदार बातें भी आप कान लगाकर आराम से सुन सकते हैं।

अब बताइए हैं ना बस का सफर मजेदार ? आपकी सभी सुविधाओं का ख्याल रखा जाता है बस में। यही नहीं बस गाहे-बगाहे आपको ऊपरवाले की याद भी दिला ही देती है। क्या अब भी आप बस में सफर नहीं करना चाहेंगे ? जरूर कीजिए, आखिर ये लुत्फ उठाने का अधिकार आपको भी है। ईश्वर जल्द आपको ये मौका दे और तब हम ड्राइवर से हमारा मतलब है कि भगवान से आपकी मंगल यात्रा के लिए दुआ करेंगे।

Sunday, May 24, 2009

नौकरी या इम्तिहान ?


आजकल मैं अपने इम्तिहान की तैयारी करने की कोशिश कर रही हूं। दरअसल अब तक ऑफिस से छुट्टियां नहीं मिली हैं। इसलिए कोशिश ही कह सकती हूं। हालांकि मेरा मानना यही है कि.. कोशिश ही हमें कामयाब बनाती है। मैं कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी से मास कम्युनिकेशन्स में पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही हूं।


खैर, अब मुद्दे की बात.. जिसके लिए ब्लॉग लिख रही हूं। एक और इम्तिहान है.. जिसे रोजाना देती हूं। और दिन के अंत यानि अपनी शिफ्ट के आखिर में यही सोचती हूं कि.. एक और इम्तिहान खत्म हो गया। मैं पास हुई या फेल ? ये इम्तिहान है किसी मीडिया हाउस या चैनल के दफ्तर में एक दिन गुजारने का। मेरी निजी सोच यही है कि.. इससे जुड़े ज्यादातर लोग ही रोजाना इस इम्तिहान में बैठते हैं। ये परीक्षा ही तो है कि.. बेतहाशा दबाव में भी बेहतर काम करने की कोशिश की जाए। चीख-चिल्लाहट और बेवजह शोर को अनसुना करते हुए बस काम किया जाए। या कभी बिना किसी ठोस बात के गुस्सा कर रहे बॉस की डांट सुनी जा। मन में कहीं न कहीं यही बात होती है कि.. शायद आज तो बात बिगड़ी ही समझो। इसलिए दफ्तर में हर एक दिन नए इम्तिहान जैसा है।


यूं तो विद्वानों ने जिंदगी को भी इम्तिहान की संज्ञा दी है। ये सही है या गलत.. ये तो आपके निजी अनुभव पर निर्भर करता है। लेकिन इस इम्तिहान के सामने तो जिंदगी भी आसान लगती है। वो बात अलग है कि.. इसने नौकरी को आसान बनाने की जुगत ने जिंदगी को ही मुश्किल कर दिया है।


यहां लोगों को नौकरी बचाने के लिए जुगाड़ करते देखा है। अपनी नौकरी सेफ जोन में रखने के लिए दूसरों की नौकरी को मुश्किल में डालते लोगों को भी देखा है। ब्रेकिंग न्यूज के वक्त गुस्से का ऊंचा पारा देखा है। न्यूज रूम की दौड़-भाग में मैं भी शामिल होती हूं। यही दौड़ जिंदगी का हिस्सा बन गई है। इसमें हारने का डर नहीं है लेकिन पिछड़ने का ही खतरा हमेशा बना रहता है। आप अव्वल भले ना हों.. लेकिन अव्वल दर्जे के समकक्ष होना भी सुखद लगता है। इसलिए ये इम्तिहान है। और अगर हर बीतते हुए दिन के साथ आपकी नौकरी बची हुई है.. तो यकीनन आप इसमें पास हैं.. क्योंकि ये इम्तिहान ऐसा है.. जिसमें रोजाना फेल होने का डर होता है।

इस इम्तिहान के लिए मेरे साथ-साथ आपको भी 'बेस्ट ऑफ लक'




Saturday, May 9, 2009

भारत को बचा ले विधाता

जन गण मन अधिनायक
जय है
भारत भाग्यविधाता
राष्ट्रगान की इन पंक्तियों को यहां लिखते हुए न तो मैं और न इन्हें पढ़ते हुए आप खड़े होंगे। टेलीविजन पर 26 जनवरी की परेड और 15 अगस्त का कार्यक्रम देखते हुए जब राष्ट्रगान बजता है, तो क्या आप खड़े होते हैं। शायद नहीं, क्योंकि हमें इतना ख्याल ही नहीं रहता। क्या ये राष्ट्रगान का अपमान नहीं है? क्या जवाब देंगे आप? राम गोपाल वर्मा पर उनकी फिल्म रण में राष्ट्रगान से छेड़छाड़ करने का आरोप लगाया गया। विवाद उठने लगा तो सेंसर ने फौरन गाने को फिल्म से हटाने का निर्देश जारी कर दिया। राष्ट्रगान के साथ छेड़छाड़ तो जरूर की गई है, लेकिन क्या वाकई ऐसा है? क्या उस पैरोडी का एक एक शब्द हकीकत तो बयान नहीं करता।रबिन्द्रनाथ टैगोर ने इसे संस्कृत मिश्रित बंगाली में लिखा था। 27 दिसम्बर 1911 को इंडियन नेशनल कॉंग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में इसे पहली बार गाया गया। जिसके बाद संविधान सभा ने 24 जनवरी 1950 को इसे राष्ट्रगान का दर्जा दिया। इसे गाने का कुल समय 52 सेकंड का होता है।

जरा गौर करिए
जन गण मन अधिनायक जय हे
भारत भाग्यविधाता
पंजाब सिंध गुजरात मराठा
द्राविड़ उत्कल वंग
विंध्य हिमाचल यमुना गंगा
उच्छल जलधितरंग
तव शुभनामे जागे,
तव शुभ आशिष मांगे
गाहे तव जयगाथा
जन गण मंगलदायक जय हे
भारत भाग्यविधाता
जय हे, जय हे, जय हे
जय जय जय जय हे!

अब देखिए राष्ट्रगान की पैरोडी

जन गण मन रण है, जख्मी हुआ है
भारत का भाग्यविधाता
पंजाब सिंध गुजरात मराठा
एक दूसरे से लड़के मर रहे हैं
इस देश ने हमको एक किया
और हम देश के टुकड़े कर रहे हैं
द्रविड़ उत्कल वंग,
खून बहाकर एक रंग का, कर दिया हमने तिरंगा
सरहदों पर जंग और गलियों में फसाद रंगा
विंध्य हिमाचल यमुना गंगा में तेज़ाब उबल रहा है
मर गया सबका सवेरा, जाने कब जिंदा हो आगे
फिर भी तव शुभ नाम जागे,
तव शुभ आशिष मांगे
आग में जलकर चीख रहा है,
फिर भी कोई नहीं बचाता
गाहे तव जयगाथा
देश का ऐसा हाल है, लेकिन आपस में लड़ रहे नेता
जन गण मंगलदायक, भारत को बचा ले विधाता
जय है या मरण है,
जन गण मन रण है

राष्ट्रगान और इस पैरोडी में अंतर तो है और वो अंतर होना लाजमी भी है। रबिन्द्रनाथ टैगोर ने जब राष्ट्रगान लिखा होगा.. तब उन्होंने नहीं सोचा होगा कि.. एक दिन देश की ये हालत होगी। भारत भ्रष्टाचार और आतंकवाद से जूझ रहा है। बावजूद इसके आज भी हम अपने आपसी झगड़ों को ही नहीं भुला पाए हैं। कभी गुजरात दंगों के नाम पर तो कभी मुंबई हमलों के नाम पर राजनीति की रोटियां सेंकी जा रही हैं। हमारी भावनाओं के साथ खिलवाड़ किया जा रहा है। इसके जिम्मेदार हम खुद भी हैं। जब हम अपने अंदर से ही भ्रष्टाचार नहीं मिटा सकें तो देश को सुधारने की कैसे सोच सकते हैं। अमेरिकी अखबार में रिपोर्ट छपती है कि.. भारत गले तक भ्रष्टाचार में डूबा है। इस रिपोर्ट को टेलीविजन पर देख-सुनकर हम आदतन नेताओं और अफसरों को कोसने लगते हैं। लेकिन अपनी बात भूल जाते हैं। अपनी कमजोरियां तब हमें याद नहीं आती। दुनियाभर में भारत को विविधता में एकता वाले देश के रूप मे जाना जाता है। हमारी सदियों पुरानी संस्कृति-सभ्यता हमारी पहचान है। जब वो पहचान भ्रष्टाचार की गंदगी से धुंधला रही है.. तो हमारा ध्यान वहां नहीं जाता। क्या देश का अपमान नहीं है? क्या ये हमारी भावनाओं का अपमान नहीं है? लेकिन हम उसे सुधारने की कोशिश नहीं करते.. क्योंकि उसके लिए पहले हमें खुद को सुधारना होगा। फिल्म रण में राष्ट्रगान में कुछ बदलाव करके.. देश के हालात बयां करने की कोशिश की गई तो... वो हमें अपना, अपनी भावनाओं और राष्ट्रगान का अपमान लग रहा है। इसलिए हंगामा खड़ा कर दिया। अगर गीतकार अपने शब्दों को महज आम गीत की तरह पिरोकर गाना बना देता.. तो क्या हमारा ध्यान उस तरफ जाता। गीत और गीतकार को तारीफ तो जरूर मिल जाती। लेकिन वो ऐसी चोट शायद नहीं कर पाता, जैसी अब कर रहा है। गीतकार के शब्द तब उतने सार्थक नहीं होते.. जितने अब हैं। भले ही इसे छेड़छाड़ कहा जाए.. लेकिन है तो हकीकत ही.. जिसे झुठलाया नहीं जा सकता। आज देश के हालात देखकर भले ही हम न सुधरे.. लेकिन दिल से आवाज यही उठती है कि.. 'भारत को बचा ले विधाता'