Thursday, November 20, 2008

ठंडी आँखें...


मौकापरस्त हो चुकी हैं आंखे
तलाश रहती है इन्हें...
नए-नए कुछ तमाशों की,
तड़पते-छटपटाते किसी हादसे में...
दम तोड़ती आवाजों की,
भटकती हैं यहां वहां...
सिसकती हुई भावनाओं के पीछे
एक नई खबर के लिए
दूर तक दौड़ती हैं रास्तों पर...
जबरन किसी मुद्दे के पीछे
ताकती हैं आसमान को भी...
खुद को भिगोने की ख्वाहिश में
ढूंढती हैं आसपास ही कहीं...
बेबस किस्सों के निशान
फिर नई कहानी के लिए
गमज़दा हो तो झुक जाती हैं...
एक रस्म निभाने को, क्योंकि...
मौकापरस्त हो चुकी हैं आंखे

2 comments:

देवेश वशिष्ठ ' खबरी ' said...

अनु मैं हमेशा से कहता हूं- अच्छा लिखने के लिए लेखक का तमगा लगना बहुत जरूरी नहीं है- बहुत अच्छा लिख रही हो-

सुबोध said...

khud ko tatolti kavite behtreen