Sunday, June 20, 2010

हलचल


फिर वही उथल-पुथल,
विचारों के सागर में..
फिर वही हलचल
स्वयं पर प्रश्नचिह्न,
स्वयं ही देती उत्तर..
फिर वही हलचल
हां.. बहकते हैं कभी
मेरे भी विचार,
तब जूझती हूं मैं भी..
अपने ही अंतरद्वंद से,
हूक उठाती है मन में..
फिर वही हलचल
स्वयं में उलझी रहूं..
या प्रश्नों को सुलझाऊं,
क्यों नहीं बीत जाता..
बीता हुआ हर एक पल
यादों में तड़पती है,
फिर वही हलचल,
हर लम्हा, हर पल
बस यही हलचल

अनु गुप्ता
20 जून 2010

3 comments:

संगीता स्वरुप ( गीत ) said...

अंतर्द्वंद्व को दर्शाती अच्छी रचना

mai... ratnakar said...

तब जूझती हूं मैं भी..
अपने ही अंतरद्वंद से,
हूक उठाती है मन में..
फिर वही हलचल
स्वयं में उलझी रहूं..
या प्रश्नों को सुलझाऊं,

बहुत गहरी है आप के लेखन में कृपया लिखती रहें ताकी बहुत अच्छा पढ़ने को मिलता रहे

Unknown said...

जिन्दगी बस न सकी ...
और आसियाने उजढ़ गये .....
धरातल की हकीकत में
हम धरा में ही रह गये......
कुछ हसीन सपनों की
कब बनेगी जिन्दगी ..........
हर समय हम उन पलो के
इंतजार में रह गये ..............
इंतजार करते हुवे
पथरा गयी ये आखें ........
इन नयनो के अश्रु भी
नयनो में सूखे रह गये.....
दर बदर भटकते हुवे
कभी इधर ...कभी उधर .....
जिन्दगी के बोझ को
जिन्दगी भर ढ़ोते रह गये ....
दिनेश पाण्डेय